Why we are so selfish

स्वार्थी होना भी कोई बुरी बात नहीं है।

कुछ लोग स्वार्थ और स्वार्थी लोगों पर बेतरह चिढ़ा करते हैं। परन्तु विचार करने की बात यह है कि क्या स्वार्थ सचमुच इतनी बुरी चीज है जितनी वह बताई और समझी जाती है। हम प्रारंभ में ही यह बतला देना चाहते हैं कि हम स्वार्थ की महिमा गाने के लिये प्रस्तुत नहीं हुये, हम तो केवल यही दिखलायेंगे कि स्वार्थ स्वयं इतना बहुत बुरा नहीं जितना कि वह समझा जाता है।

यों तो मनुष्य में जन्म से ही अनेक प्रवृत्तियाँ होती हैं, पर कुछ प्रवृत्तियाँ बड़े होने पर ही विकसित होती हैं। हमारा मत है कि स्वार्थपरता भी एक स्वाभाविक और जन्मजात प्रवृत्ति है। किसी प्रकार का कष्ट होने पर या भूख लगने पर रोना, और अपनी वह इच्छा अन्य किसी प्रकार प्रदर्शित करना, कष्ट दूर होने पर आनन्द प्रकट करना इत्यादि-इत्यादि कार्यों के बहुत भीतर स्वार्थ का बीज गुप्त रहता है। यह सच है कि यदि बालक में ये कार्य और प्रवृत्तियाँ न हों तो बालक की रक्षा और उसका पालन पोषण कठिन हो जायेगा। इन प्रवृत्तियों के न होने से मनुष्य-जाति का अस्तित्व ही कदाचित मिट जायगा। चाहे विकासवाद का आश्रय लेकर यह कहिये कि वे ही प्राणी दुनिया में जीने पाते हैं जिनमें अपनी रक्षा और विकास की यथेष्ट योग्यता होती है, या हिन्दुओं की भाषा में यों कहिये कि परमेश्वर ने प्राणियों की रक्षा के लिये ये प्रवृत्तियाँ उसे दी हैं। परन्तु बात एक ही है। इनके बिना मनुष्य संसार में जीवित नहीं रह सकेगा। इन्हीं प्रवृत्तियों से ही स्वार्थपरता उत्पन्न होती है। साराँश यह है कि स्वार्थपरता भी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

परन्तु अब प्रश्न उठता है कि क्या स्वार्थ की प्रवृत्ति भी उल्लिखित प्रवृत्तियों की तरह अनिवार्य रीति से आवश्यक है? ‘इसका स्पष्ट उत्तर यही है हाँ’। कारण भी स्पष्ट है। जिन प्रवृत्तियों से स्वार्थ-परता उत्पन्न होती है, उनका मुख्य गुण उसमें रहता है। इससे व्यक्ति और समाज दोनों दृष्टि से मनुष्य की रक्षा होती है। यदि मनुष्य अपने शरीर की रक्षा स्वयं न करें और न दूसरों से करावे, तो उसकी रक्षा और कौन करेगा? प्रत्येक मनुष्य जाति का अस्तित्त्व बना हुआ है। वास्तव में प्रत्येक प्राणी में आत्म-संरक्षक एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है और इस दृष्टि से स्वार्थपरता उसका एक प्रधान और स्वाभाविक साधन है। यह समझना और बतलाना कठिन है कि इस प्रवृत्ति के बिना मनुष्य की रक्षा कैसे होगी। प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी चिन्ता रहती है और यह नितान्त आवश्यक है। परन्तु यदि शरीर-रक्षण के लिये स्वार्थपरता की आवश्यकता है, तो कुटुम्ब के बालक, पति-पत्नी, माता पिता, भाई बन्धु इत्यादि आश्रितों की रक्षा के लिये भी उसकी कम आवश्यकता नहीं है।

इस विवेचन के बाद कोई हमसे प्रश्न कर सकता है कि यदि आत्म-रक्षा के लिए स्वार्थ आवश्यक है, तो लोग उसे बुरा क्यों कहते हैं, लोग उसकी निन्दा क्यों करते हैं? और ‘स्वार्थ’ त्यागी की प्रशंसा क्यों करते हैं? पहले हम प्रथम प्रश्न का उत्तर देंगे।

इसका उत्तर यह है कि वास्तव में निन्दा स्वार्थ की नहीं होती। जो कोई नीति के नियमों का उल्लंघन करके अपने स्वार्थ की पूर्ति करता है उसकी निन्दा होती है। नीति के नियम कुटुम्ब और समाज की रक्षा के लिए होते हैं, उन्हीं पर कुटुम्ब और समाज का अस्तित्व अवलम्बित है। यदि सब मनुष्य झूठ बोलने लगें, सब मनुष्य असत्याचरण करने लगें कोई किसी का विश्वास न करें, समय पाते ही प्रत्येक चोरी करने लगे, अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की कोई भी हानि करने को तैयार हो जाय तो समाज और कुटुम्ब का टिकना असम्भव हो जायगा। इसलिए ऐसे दुष्कर्म शील पुरुषों की जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है। जो स्वार्थ अपने कर्तव्यों या नीति के नियमों को भुलाते वह हीन प्रकार का स्वार्थ है। नीति के नियमों में कर्तव्यों का पालन भी शामिल है और उनका एक प्रधान उद्देश्य कुटुम्ब या समाज की रक्षा करना है। यदि कोई पुरुष अपने शरीर की रक्षा के सिवाय दूसरे के शरीर की रक्षा न करे तो उसके बालक की या पत्नी की रक्षा कौन करेगा? कोई कोई लोग तो इतने स्वार्थी होते हैं कि उन्हें अपने आश्रितों के प्रति अपने कर्तव्यों का स्मरण तक नहीं रहता। ऐसी अवस्था में उनकी निन्दा होना अनुचित नहीं। घोर स्वार्थी पुरुष की निन्दा होने का एक कारण और है और वह है पर-हित का कर्तव्य। अपने नैतिक विकास के लिए न सही, आत्म-हित के लिए भी पर-हित करना पड़ता है। जिस कुटुम्ब में, जिस ग्राम में, जिस जिले में, जिस प्रान्त में, जिस देश में, जिस जन-समाज में तुम रहते हो, उस कुटुम्ब, उस ग्राम, उस जिले, उस प्रान्त, उस देश और जन-समाज के हित पर तुम्हारा निजी हित अवलम्बित है।

जो लोग नीति के नियमों का, अपने कर्तव्य का और उदार बुद्धी मूलक स्वार्थ का विचार रखेंगे, वे बहुधा स्वार्थी न कहलावेंगे। वे लोग तत्व-दृष्टि से स्वार्थी अवश्य है। उनके स्वार्थ के कारण दूसरों के स्वार्थ का, दूसरों के प्रति उनके कर्तव्यों का और समाज-व्यवस्था के नियमों का उल्लंघन नहीं होता, इसलिए लोगों के ख्याल में यह बात नहीं आती कि वे वास्तव में अपने स्वार्थ की सिद्धि में ही लगे हैं।

कोई चाहता है कि मेरे लिए तो सब लोग कष्ट उठावें, पर मैं किसी के लिए कष्ट न उठाऊँ। कोई चाहता है कि मेरा काम मुफ्त ही सिद्ध हो जाय और एक कौड़ी खर्च न करनी पड़े। कोई चाहता है कि मुझे मुफ्त ही दूसरे के बल पर शान करने को मिले। दूसरों के भरोसे अपनी जिह्वा और उदर की, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने की, इच्छा तृप्त करने वाले लोग समाज में कम नहीं रहते। यदि कोई पुरुष ऐसे लोगों की ये इच्छा तृप्त न करें तो उसे ये लोग स्वार्थी कहने लगेंगे। वास्तव में ऐसा कहने वाले ही अतीव स्वार्थी हैं। जिनकी वे निन्दा करते हैं वे नहीं। अपने स्वार्थ के वश ये लोग दूसरों को व्यर्थ ही स्वार्थी कहा करते हैं। इस तरह समाज में कभी उचित कारणों से और कभी व्यर्थ ही स्वार्थी समझा जाने का अवसर आ जाता है।

मनुष्य प्रधानतः स्वार्थी ही है और ऐसा होना आवश्यक भी है। यदि वह स्वार्थी न हो तो उसका अस्तित्व भी रहना कठिन हो जाय। परन्तु हम यह भी जानते हैं कि मनुष्य में परहित की भी थोड़ी बहुत प्रवृत्ति है। पुत्र प्रेम, पति-प्रेम, पितृ-प्रेम, बन्धु-प्रेम, देश-प्रेम केवल बनावटी भाषा नहीं है। उसमें कुछ सत्यता भी है। मनुष्य में दया, अनुकम्पा, प्रेम आदि भावनाएँ भी स्वाभाविक हैं। किसी के कष्ट को देखकर दया उत्पन्न होना क्या स्वाभाविक नहीं है? किसी कष्टमय दशा को देखकर हमें कष्ट क्यों होता है? क्या इसमें भी हमारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है? क्या लोग अपने पुत्रादि के लिये अपने प्राण तक नहीं होम देते? क्या सब माता-पिता केवल किसी आशा पर पुत्र का लालन-पालन करते हैं? क्या पुत्र की रक्षा करते समय सदैव स्वार्थ मूलक विचार बने रहते हैं? क्या माता-पिता की, भाई-बहिन की, पति या पत्नि की सेवा हम सदैव अपने स्वार्थ पर दृष्टि रख कर ही किया करते हैं? क्या सेवा के लिये सेवा, प्रेम के लिये प्रेम हम कभी नहीं करते, क्या रण में जाने वाला सिपाही सदैव स्वार्थ पर ध्यान रखकर ही युद्ध करता है? क्या उसे यह निश्चित आशा रहती है कि मैं रण में अवश्य विजयी होऊँगा और समर से जिन्दा लौट आऊँगा?

ऐसे-ऐसे कितने ही प्रसंगों का स्मरण कराया जा सकता है कि जब मनुष्य केवल दया, प्रेम, परहित की कामना से प्रेरित होकर कार्य किया करता है। प्रत्येक व्यक्ति को यह मालूम है कि पुत्र होने से माता पिता के शारीरिक सुख में अनेक प्रकार की विघ्न हुआ करते हैं इतना ही नहीं, किन्तु उन्हें अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष कष्ट उठाने पड़ते हैं। पर क्या पुत्रेच्छा स्वाभाविक बात नहीं है? पुत्र प्राप्ति के लिए लोगों ने क्या-क्या प्रयत्न नहीं किए। क्या ये कष्ट केवल स्वार्थ मूलक ही रहते हैं? हमारी समझ में इन प्रयत्नों में स्वार्थ का त्याग अवश्य है। जिस दिन तरुण पुरुष का विवाह होता है, उसी दिन उसे अपने स्वार्थ की सीमा बढ़ानी पड़ती है, और जिस दिन पुत्र-प्राप्ति होती है, उस दिन उसे सीमा को बहुत ही अधिक बढ़ाना पड़ता है। एक दृष्टि से यह स्वार्थ विस्तार ही स्वार्थ-त्याग है। अपने शरीर का स्वार्थ छोड़कर मनुष्य पुत्र और पत्नी के लिये कष्ट सहने को तैयार रहता है। जगत में यही स्वार्थ-त्याग का पहला पाठ है। व्यक्तिगत स्वार्थ को भूलना और अधिकाधिक लोगों के लिये कष्ट सहना ही स्वार्थ-की पहली सीढ़ी पर चढ़ना है। अबोध बालक में स्वार्थ-त्याग की थोड़ी बहुत प्रवृत्ति रहती है। स्वार्थी होते हुए भी वह दूसरे बालकों के प्रति उदारता भी दिखलाता है और उसकी यह प्रवृत्ति नैतिक विकास की बड़ी भारी नींव है। यदि मनुष्य केवल स्वार्थी होता, तो नैतिक विकास की आशा मृग जल सदृश्य होती। यह हमें जानना ही होगा कि परहित चिंतन, स्वार्थ-त्याग, प्रेम, दया आदि भी हम में स्वाभाविक ही हैं, चाहे उनका परिणाम स्वार्थपरता से कम क्यों न हो।

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Comments

  1. Nice blog sir...
    Or swarth bilkul jayaj h bs kch conditions me...

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  2. स्वार्थ भी आवश्यक है।
    ThnQ Sir 4 dis nyc blog.

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  3. Very nicely written sir

    Deepam

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  4. सत्य है श्रीमान स्वार्थ आवश्यक है मनुष्य को इस संसार में स्वयं को जीवित रखने के लिए किन्तु यदि वही स्वार्थ नैतिक मूल्यों का उल्लंघन करके एवम स्वयं की रक्षा के विपरीत मात्र भौतिक सुखों के लिए किसी अन्य मनुष्य को कष्ट पहुंचा करके किया जा रहा तो वह एक निकृष्ट भावना ही कहा जायेगा।

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  5. Utaam vichar guru ji . Hum shabdo ko usi roop mae samjhte hai jaise ki vo hai par jab sahi mayne mae unka arth pata chalta hai tab buri vastuye ya shabd bhi ache ban jaate hai Qki iss duniya achai aur burai dono ki avshyakta hai

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